Saturday 17 September 2011

धींगा-गवर का पर्व

                        राजस्थान के पश्चिमी भाग के जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर आदि क्षेत्रों में सुहागिनें अखंड सुहाग की कामना के लिए धींगा गवर की पूजा करती है। यह पूजा सामान्यत: गणगौर पूजा के बाद चैत्र शुक्ल तृतीय से वैसाख कृष्ण पक्ष की तृतीया तक होती है। धींगा गवर का पर्व पति-पत्नी के आपसी प्रेम का द्योतक भी माना जाता है। गवर को विधवाएं व सुहागिनें साथ-साथ पूजती हैं, लेकिन कुंआरी लडकियों के लिए गवर पूजा निषिद्ध है। गवर की सोलह दिवसीय पूजा शुरू करने से पूर्व महिलाएं मोहल्ले के किसी एक घर में दीवार पर गवर का चित्र बनाती है। ये स्त्रियाँ घरों की दीवारों पर कच्चे रंग से शिव, गजानन व बीचों बीच में घाघर सिर पर उठाए स्त्री के चित्र भी बनाती हैं।
इन चित्रों में मूषक, सूर्य व चंद्रमा आदि के भी चित्र होते हैं। इन चित्रों के नीचे कूकड, माकडव तथा उसके चार बच्चों के चित्र भी बनाए जाते हैं या फिर उनके मिट्टी से बने पुतले रखे जाते हैं। इसके अलावा कई घरों में गवर की प्रतिमा भी बिठाई जाती है। इस पर्व की पूजा का समापन बैसाख शुक्ल पक्ष की तीज की रात्रि को गवर माता के रातीजगा के साथ होता है। गवर पूजा में सोलह की संख्या का अत्यंत महत्व है। पूजा के स्थानों पर महिलाएँ सोलह की संख्या में इकट्ठा होकर पूजा करती है तथा पूजन के पश्चात सोलह की संख्या में ही एक साथ भोजन करती है। यह संख्या घटाई-बढ़ाई नहीं जा सकती है।धींगा गवर के बारे में हालांकि कोई तथ्यात्मक जानकारी उपलब्ध नहीं है लेकिन कहा जाता है कि धींगा गवर ईसर जी के नाते आई हुई उपपत्नी थी। धींगा गवर पूजने वाली प्रत्येक महिला 16 दिनों तक अपने-अपने हाथों में 16 गांठों का डोरा बांधती हैं। इसके बाद वे बारी-बारी से दीवार पर बने चित्रों की फूल, चावल, कुंकुम एवं फल चढ़ा कर पूजा-अर्चना करती हैं। यह पूजा दोपहर में की जाती है। इसमें गवर की मूर्ति को वस्त्रादि से सजा कर सोने के गहने भी पहनाए जाते हैं। रतजगा में भोलावणी की जाती है। इसमें स्त्रियां विशेष पारम्परिक गीत गाती हुई गवर को उठाकर समूहों में चलती हैं तथा अपने हाथों में बंधा 16 गाँठ का धागा खोल कर गवर के बाँध देती हैं। भोलावणी का यह उपक्रम देर रात तक होता है, जिसमें सिर्फ औरतें ही जाती हैं।

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